देखा जाए तो भारत के सामने एक मौका खुद चलकर आ रहा है. जो पाकिस्तान पर नकेल लगाने के लिए काफी है. जो देश भारत में आंतकी गतिविधियां बढ़ाकर नाक में दम किया रहता है, उससे बदला लेने का भारत के पास बहुत बढ़िया मौका है. सवाल उठता है कि क्या भारत को ऐसे मौके का इस्तेमाल पाकिस्तान को कमजोर करने में करना चाहिए? क्या भारत को बलोच स्वतंत्रता सेनानियों को मान्यता देकर उनके साथ खड़ा होना चाहिए? क्या प्रकृति 1971 को एक बार फिर दुहरा रही है? क्या आज की तारीख में ऐसा संभव है कि भारत बांग्लादेश निर्माण की तरह पाकिस्तान को तोड़कर एक और आजाद देश बलूचिस्तान का निर्माण करे? इसका उत्तर बिल्कुल हां मेंं है. इतना ही नहीं , यह काम भी भारत की ओर जल्दी होना चाहिए. क्योंकि बलूचों को मान्यता देने वाले देश में भारत का नाम पहला होना चाहिए. ऐसा केवल पाकिस्तान को परेशान करने के लिए ही जरूरी नहीं है बल्कि यह भारत का नैतिक कर्तव्य भी है.
Expand article logo पढ़ना जारी रखें
होम पेज पर वापस जाएँ
1- नेहरू की गलतियों को सुधार सकते हैं मोदी
चूंकि 1948 में सैन्य कार्रवाई के बल पर पाकिस्तान ने बलूचिस्तान को अपने साथ मिलाया था इसलिए ज्यादातर बलोचों के मन में यह बात बैठ गई कि पाकिस्तान कभी उनका नहीं रहा है और न ही उनका हो सकता है. अंग्रेजों की विदाई के साथ ही बलोचों ने अपनी आजादी की घोषणा कर दी थी. पाकिस्तान ने पहले ये बात मान ली थी लेकिन वो बाद में इससे मुकर गए. बलोचों के सबसे बड़े नेता खुदादाद खान (खान ऑफ कलात) से 1876 में अंग्रेजों ने जो संधि की थी उसके मुताबिक बलूचिस्तान एक आजाद देश था. कहा जाता है कि खुदादाद खान को जिन्ना पर भरोसा नहीं था इसलिए वो भारत के साथ आना चाहते थे. पर 1946 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसमें रुचि नहीं दिखाई. हो सकता है कि नेहरू ने ऐसा न किया हो.