Sawan Kanwar Yatra 2025: 11 जुलाई यानी शुक्रवार से सावन माह का शुभारंभ होने वाला है. भगवान भोलेनाथ के इस प्रिय माह को श्रावण मास भी कहते हैं. सावन में व्रत रखकर शिव पूजा का विधान है. इस माह मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए कांवड़ यात्रा करते हैं. हिंदू धर्म में सावन के महीने में भगवान शिव की पूजा-अर्चना, सोमवार के व्रत और कांवड़ियों के शिवलिंग के जलाभिषेक का विशेष महत्व है. श्रावण मास में भोलेनाथ के भक्त गंगा तट पर जाते हैं. वहां स्नान करने के बाद कलश में गंगा जल भरते हैं. फिर कांवड़ पर उसे बांध कर और अपने कंधे पर लटका कर अपने-अपने इलाके के शिवालय में लाते हैं और शिवलिंग पर अर्पित करते हैं. ऐसे में सवाल है कि आखिर कांवड़ यात्रा क्या है? किन पवित्र नदियों से शिवलिंग का होता जलाभिषेक? कांवड़ यात्रा का धार्मिक महत्व क्या है? इस जानते हैं इस बारे में-
क्या होती है कांवड़ यात्रा
कांवड़ बांस या लकड़ी से बना डंडा होता है जिसे रंग बिरंगे पताकों, झंडे, धागे, चमकीले फूलों से सजाया जाता है और उसके दोनों सिरों पर गंगाजल से भरा कलश लटकाया जाता है. कांवड़ यात्रा के दौरान सात्विक भोजन किया जाता है. इस दौरान आराम करने के लिए कांवड़ को किसी ऊंचे स्थान या पेड़ पर लटका कर रखा जाता है.
इन नदियों से होता है जलाभिषेक
कांवड़ यात्रा करने वाले भक्त कांवड़िए या भोला कहलाते हैं. कांवड़ यात्रा में कांवड़िए पैदल और वाहनों से भी यात्रा करते हैं. कांवड़ यात्रा हर साल सावन के महीने में शुरू होती है और सावन महीने की त्रयोदशी तिथि यानी सावन शिवरात्रि पर भगवान शिव को जल चढ़ाने का विधान है. भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए भक्त गंगा, नर्मदा, शिप्रा आदि नदियों से जल भर कर उसे एक लंबी पैदल यात्रा कर शिव मंदिर में स्थित शिवलिंग पर उसे चढ़ाते हैं.
कावड़ यात्रा का धार्मिक महत्व
पौराणिक कथा के मुताबिक, त्रेता युग में श्रवण कुमार के अंधे माता-पिता ने हरिद्वार में गंगा स्नान करने की इच्छा जाहिर की थी. ऐसे में उनके पुत्र श्रवण कुमार ने माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर कंधे पर उठाकर पैदल यात्रा की और उन्हें गंगा स्नान करवाया. इसके बाद उन्होंने वहां से गंगाजल लेकर भगवन शिव का विधिपूर्वक अभिषेक किया. धार्मिक मान्यता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई.
कांवड़ यात्रा की शुरुआत को लेकर एक और दूसरी कथा भी प्रचलित है. धार्मिक मान्यता के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को पीने से शिवजी का गला जलने लगा. इस स्थिति में देवी-देवताओं ने गंगाजल से प्रभु का जलाभिषेक किया, जिससे प्रभु को विष के प्रभाव से मुक्ति मिल गई. ऐसा माना जाता है कि तभी से कांवड़ यात्रा की शुरुआत हुई.
पौराणिक मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान निकले भगवान शिव विष पीकर पूरी दुनिया की रक्षा की थी. विषपान करने से शिवजी का कंठ नीला पड़ गया था, जिस वजह से उन्हें नीलकंठ कहा जाता है. ऐसा कहते हैं इसी विष के प्रकोप को कम कर उसके प्रभाव को ठंडा करने के लिए ही शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है. इस जलाभिषेक से प्रसन्न होकर भगवान शिव भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करते हैं.
कांवड़ यात्रा भगवान भोलेनाथ को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने का एक सबसे शुभ और उत्तम मानी गई है. धार्मिक मान्यता है कि सावन के महीने में कांवड़ उठाने वाले भक्त के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और कांवड़ के जल से शिवलिंग का अभिषेक करने पर सालभर भोलेनाथ की कृपा बनी रहती है. साथ ही कष्ट, दोष, और कंगाली से छुटकारा मिलता है.